स्वामी विवेकानन्द भारत के उन महा पुरुषों में शामिल हैं जिन्होने भारत को विश्व में एक नयी पहचान दी। भारत का अद्भुत दर्शन पश्चिमी देशों के लोगों को कराया। केवल भारत में ही नहीं उनके शिष्य अमेरिका में भी बन गए थे, यही था उनका प्रभाव, उनका ज्ञान।
स्वामी विवेकानन्द पर निबंध (250 शब्द)
स्वामी विवेकानंद – एक ऐसे महापुरुष हैं जिन्हें आज का युवा अपना आदर्श मानता है और उनके विचारों से हमेशा प्रेरणा प्राप्त करता है। पूरे विश्व में भारत का गौरव बढ़ाने में उनके योगदान को कोई नहीं भुला सकता।
भारत के गौरव और युवाओं के मार्गदर्शक स्वामी विवेकनंद का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 के दिन हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था।
बचपन से ही स्वामी विवेकानंद बड़े ही होशियार थे और बचपन से ही परमात्मा को जानने की लालसा उनके मन में जाग उठी। इसी बीच स्वामी विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु मिले और उनके सानिध्य में उन्हें आत्मज्ञान हुआ। उन्होने सन्यास लिया और तभी से वे नरेंद्र दत्त से स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुये।
अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की उन्होने खूब सेवा की और उनके देहांत के पश्चात उन्होने पूरे भारत का भ्रमण किया।
अमेरिका के शिकागो में सन 1893 में हुई विश्व धर्म सभा में उन्होने भारत के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। उस सभा में उन्होने जो भाषण दिया उसके कारण भारत का गौरव और भी बढ़ गया। अमेरिका में उन्होने रामकृष्ण मिशन की शाखाएँ स्थापित की और भारत की आध्यात्म विद्या का प्रचार प्रसार किया।
4 जुलाई सन् 1902 को स्वामी विवेकानंद ने अपने देह का त्याग किया। अपने सम्पूर्ण जीवन में उन्होने गरीबों की सेवा की और मानवता का पाठ लोगों को पढ़ाया। भारत का पूरे विश्व में सम्मान बढ़ाया और युवाओं में एक ऐसा उत्साह भर दिया की आज भी हम उनकी जन्मतिथि को राष्ट्रिय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं।
स्वामी विवेकानन्द पर निबंध (500 शब्द)
भारत के महापुरुषों में स्वामी विवेकानंद की गणना होती है। भारत देश जब विदेशी हुकूमत का गुलाम था उस समय स्वामी विवेकानंद ने भारत को पूरे विश्व में एक नयी पहचान दी और देश का गौरव बढ़ाया। पूरी दुनिया में भारत की संस्कृति, सभ्यता और अध्यात्म का प्रचार प्रसार उन्होने किया, परिणाम स्वरूप दुनिया में लोगों के मन में भारत के प्रति सोच बदली।
विश्व में भारत का गौरव बढ़ाने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 के दिन कोलकाता में हुआ था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त एक जाने माने वकील थे और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। स्वामी विवेकानंद का मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उन्होने कोलकाता में ही अपनी शिक्षा पूरी की थी।
नरेंद्र दत्त के मन में बचपन से ही ईश्वर और धर्म के विषय में जानने की तीव्र इच्छा थी। उनके मन के प्रश्नों के समाधान के लिए वे ब्रह्मसमाज में शामिल हुये किन्तु वहाँ भी उन्हें संतुष्ट जवाब नहीं मिले। जब वे सतरह वर्ष के थे तब वे संत रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आए और उनसे वे इतने प्रभावित हुये की उन्होने रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु बना लिए।
इसी बीच नरेन्द्र के पिता का देहांत हो गया और घर की ज़िम्मेदारी उन पर आ गयी। इस समय उन्हें कई आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा। वे अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की शरण में गए, जहां उन्हें आत्मज्ञान हुआ और वहीं से उन्होने सन्यास लिया और नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद बन गए।
अपने गुरु की वो खूब सेवा करते थे, यहाँ तक की उनके बीमार होने पर भी वो किसी भी प्रकार का संकोच किए बिना उनका मल मूत्र भी साफ करते थे। अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के देहांत के बाद वे भारत भ्रमण करने के लिए निकल गए।
इसी बीच सन 1893 में अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म-सम्मेलन हो रहा था। इस धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद हिन्दू धर्म का पक्ष रखने के लिए भारत के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित हुये। उस समय पश्चिमी देशों के लोग भारत के बारे में हीन भावना रखते थे। इस विश्व धर्म-सम्मेलन में स्वामी विवेकनद ने “भाइयो और बहनों” कहकर अपना भाषण प्रारम्भ किया। उनका भाषण सुनकर सभी गदगद हो उठे और तालियों से पूरी सभा गूंज उठी। उनका यह भाषण सुनकर अमेरिका में उनके कई शिष्य बन गए और एक बड़ा समुदाय उनका भक्त बन गया। अमेरिका में उन्होने हिन्दू धर्म का प्रचार प्रसार किया और रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
स्वामी विवेकानंद ने पूरे विश्व में भारत का डंका बजा दिया था। भारत लौटकर वो गरीब-दीन दुखियों की सेवा में लग गए। उनका यही कहना था की गरीब की सेवा ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। परहित में लीन स्वामी विवेकानन्द 39 वर्ष की आयु में 1902 में उनका निधन हुआ। युवाओं को उन्होने एक अच्छा संदेश दिया था ” जागो, उठो और अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो” आज भी युवा उनके आदर्शों पर चलकर उनके बताए रास्ते पर चलने की कोशिश करता है।
हर वर्ष 12 जनवरी के दिन स्वामी विवेकानन्द की जन्म जयंती मनाई जाती है और इसी दिन भारत में राष्ट्रिय युवा दिवस भी उनके स्मरण में मनाया जाता है। इस दिन हर युवा उनके आदर्शों पर चलने की कसम खाता है और उन्हें याद करता है।
स्वामी विवेकानन्द पर निबंध (700 शब्द)
स्वामी विवेकानंद का जन्म -बचपन
स्वामी विवेकानन्द का जन्म कोलकाता में 12 जनवरी 1863 के दिन हुआ था। पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था जो की पेशे से एक वकील थे और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। स्वामी विवेकानन्द के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। उन्होने 25 वर्ष की आयु में ही अपने परिवार को छोड़ दिया था और सन्यासी बन गए। स्वामी विवेकानन्द की माता एक धार्मिक विचारों की महिला थीं, अतः बचपन से ही नरेंद्र के मन में ईश्वर को जानने की प्रबल इच्छा थी।
बचपन से ही नरेंद्र अत्यंत कुशाग्र बुद्धि वाले बालक थे। उनके घर में नियमित पूजा पाठ और और धार्मिक प्रवर्तियाँ होतीं थीं। माता भुवनेश्वरी देवी के मुख से वे रोज पुराण, रामायण, महाभारत आदि धार्मिक ग्रन्थों के पाठ सुनते थे। परिवार का ऐसा धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण मिलने के कारण नरेंद्र के मन में भी आध्यात्म और संस्कार दोनों का सिंचन हुआ। ईश्वर के बारे में जानने की उनकी उत्सुकता और बढ्ने लगी।
सन् 1871 में, आठ साल की उम्र में, नरेंद्रनाथ ने अपनी शिक्षा की शुरुआत की। कोलकाता में उन्होने कॉलेज में स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
स्वामी विवेकानंद और संत रामकृष्ण परमहंस
ईश्वर को जानने की प्रबल इच्छा के कारण नरेंद्रनाथ सर्वप्रथम ब्रह्मसमाज में शामिल हुये लेकिन वहाँ उनकी शंकाओं का समाधान नहीं हुआ। इसके बाद नरेन्द्रनाथ का संपर्क प्रख्यात संत रामकृष्ण परमहंस से हुआ। नरेंद्, रामकृष्ण परमहंस से इतने प्रभावित हुये की उन्होने उन्हें अपना गुरु बना लिया और उनकी सेवा में लग गए। अपनी सेवा और सत्यनिष्ठा के कारण रामकृष्ण परमहंस के वे प्रिय शिष्य बन गए।
एक समय ऐसा आया की रामकृष्ण परमहंस अत्यंत बीमार पड़ गए। उस समय एक तरफ नरेंद्र का परिवार पिता की मृत्यु के कारण आर्थिक संकटों से गुजर रहा था, लेकिन उसकी परवाह किए बिना नरेंद्र अपने गुरु की सेवा में लगे रहे। अपने गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे।
रामकृष्ण परमहंस के देहांत के पश्चात स्वामी विवेकानन्द भारत भ्रमण की ओर निकल पड़े।
स्वामी विवेकानन्द का विश्व धर्म सम्मेलन भाषण
अपनी तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो, अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और भारत देश और हिन्दू धर्म का गौरव पूरे विश्व में बढ़ाया। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-“यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।”
सन् 1893 में शिकागो (अमरीका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। उस समय यूरोप-अमरीका के लोग अंग्रेजों की गुलामी सह रहे भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले, किन्तु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें कुछ समय भाषण देने को मिला।
अपना भाषण उन्होने “मेरे प्रिय भाइयों-बहनों” से शुरू किया और जब उनका भाषण समाप्त हुआ तब पूरी सभा तालियों से गूंज उठी। लोग उनके भाषण को सुनकर आश्चर्यचकित हो उठे। जो अमेरिका के लोग हीन दृष्टि से भारत के लोगों को देखते थे आज वही एक भारतवासी की वाह वाही करते हुये नज़र आ रहे थे। अमेरिका में स्वामी विवेकानन्द के कई शिष्य बन गए और वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया।
तीन वर्ष तक स्वामी विवेकानन्द अमरीका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय संस्कृति और आध्यात्म का अद्भुत दर्शन कराया। “अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा” यह स्वामी विवेकानन्द के शब्द थे। अमरीका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। वे सदा अपने आपको ‘गरीबों का सेवक’ कहते थे।
समाज और देश की निरंतर सेवा करते हुये स्वामी विवेकानन्द ने 39 वर्ष की अल्प आयु में 4 जुलाई 1902 के दिन अंतिम सांस ली।
स्वामी विवेकानन्द युवाओं के हमेशा से प्रेरणा स्त्रोत रहे हैं इसलिए भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती, अर्थात 12 जनवरी को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज भी उनके विचार युवाओं को देश के लिए कुछ करने की हिम्मत प्रदान करते हैं। युवाओं को जगाने के लिए उन्होने जो कहा था वो आज भी हमें प्रेरित करता है – “उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए”
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